
I have target to make the beneficial strategies that will be effective in the Search Engine Optimization Programs. To have a great strategy depends on the practical experience as such the labour beyond the practice.
Friday, October 29, 2010
Saturday, October 23, 2010
Why to Convert Word to PDF: 10 Advantages of PDF Files

The popular PDF format solved this problem by introducing itself as a system-wide universal format: almost anyone on any computer system is able to open a PDF file these days. People have clearly discovered some advantages of PDF files, but yet only a few are actively creating PDF files themselves. So why should you consider creating your own PDF documents? I present you the top 10 advantages of this widely popular format:
- 1. Compatible Across platforms
- 2. Compact & Small
- 3. Can be created from any source document/application
- 4. Securable, avoid people from modifying & redistributing your work
- 5. Secure, almost no chance of getting infected with viruses.
- 6. Easy and quick to create when using the right software
- 7. Software to view PDF Files is completely free
- 8. Viewable within most web-browsers
- 9. PDF Files meet legal document requirements.
- 10. Compatible with modern portable reader systems
Friday, October 22, 2010
Winter /Summer Internships
www.IndianInternship.com has latest internships job postings in India. MBA Internship, BE / BTech Internships, MCA Internship, Graduates Internships, Summer Internships, Winter Internships all here.
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Wish you all the best...
Thursday, October 21, 2010
खिड़की : इला प्रसाद
खिड़की इला प्रसाद Download PDF |
इस कमरे में यह जो खिड़की देख रहे हैं न आप, यह पहले यहाँ नहीं थी। इस सड़क से आप बीसियों बार गुजरे होंगे। इस घर के सामने से भी। कभी आपका ध्यान गया इस खिड़की की तरफ? नहीं न! जाता भी कैसे, यह यहाँ थी ही नहीं।
अनुपस्थिति भी कई बार महत्त्वपूर्ण हो जाती है, तब, जब आप अचानक आ जाते है। जिन्होंने आपके न होने को महसूस न किया हो, वे भी चौकन्ने हो उठते हैं। अरे ! यह तो यहाँ नहीं था। कब आया? तो कुछ ऐसा ही इस खिड़की के साथ हुआ है। अभी सबका ध्यान जा रहा है इस खिड़की की तरफ। लोगबाग इस सड़क से गुजरते हुए इस खिड़की की तरफ जरूर देखते हैं। अच्छा यहा पर एक खिड़की है। फिर गौर से देखते हैं। क्या पता कोई परी चेहरा नज़र आ जाए, खिड़की से झाँकता हुआ। न भी झाँकता हुआ तो खिड़की के आसपास कहीं। परी चेहरा न सही, कोई भी चेहरा, कुछ भी। यूँ समझ लीजिए कि खिड़की के माध्यम से घर का हिसाब रखने में जुटे हैं लोग। मैं तो परेशान हूँ। मेरे पति को अगर पता चल गया ना, तो फिर तो इसे बन्द ही समझिए। फिर से ईंट गारे की दीवार खड़ी हो जायेगी यहाँ पर।
पूरे पाँच साल लगे हैं मुझे, अपने पति के दिमाग में यह बात डालने में कि इस घर का जो ड्राइंग रूम है, उसमें बाहर को खुलती एक खिड़की होनी चाहिए। बाहर, यानी सड़क को। वरना खिड़की तो इस कमरे में है। पूरे घर में है। लेकिन, घर के अन्दर को खुलती हुई। एक कमरे को दूसरे से जोड़ती हैं या फिर घर के पिछवाड़े को खुलती हैं। दिन दुपहर थोड़ी धूप भी आ ही जाती है। लेकिन कोई खिड़की घर के बाहर की दुनिया को घर के अन्दर नहीं लाती।
जब मैं यहाँ, इस घर में ब्याहकर आई तो बड़ा अटपटा लगता था। शादी के पहले कॉलेज जाती थी। बहुत तेज नहीं, साधारण छात्रा ही थी लेकिन माँ बाप ने पढ़ाया और इस तरह बाहर की दुनिया से मेरा नाता बना रहा था। कभी होटलों में, दोस्तों के साथ खा भी लेती थी। कॉलेज की पिकनिक गई तो उसमें भी गई। माँ कहती थीं, “जाने दो। बाद में घर गृहस्थी में कब जा सकेगी।” मैं ऐसी कोई उच्छृंखल या तेज तर्रार लड़की भी नहीं थी कि माँ बाप कोई भय पालते। या कि शायद अन्दर ही अन्दर उनकी यह इच्छा भी हो कि इसी तरह पढ़ते घूमते मैं किसी की नजर में चढ़ जाऊँ तो उन्हें लड़का ढूँढने का दायित्व न निभाना पड़े। कई बार बिना दहेज की शादियाँ भी हो जाती हैं ऐसे। हँसी हँसी में मुझे सुनाकर आपस में कुछ कुछ बोल भी जाते। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। मैं अच्छी लड़की बनी रही और एक दिन इन्हें पारंपरिक तरीके से ब्याहकर इस घर में आ गई।
मुझे तो अच्छा ही लगा। कौन फालतू के झमेले मोल ले। मेरी कितनी सहेलियाँ झूठ मूठ बदनाम हुईं लड़कों से मेल जोल बढ़ाकर। कहने को लोग उदार प्रगतिशील होते हैं लेकिन जब बेटे के ब्याह पर बात आती है तो एकदम दकियानूसी, पुराने विचारों वाले बन जाते हैं। बेटियाँ मुफ्त में निबट जाएँ तो ठीक। जहाँ ऐसे दोहरे विचार हों, वहाँ शरीफ बने रहना ही ठीक है। मेरे माँ बाप कोई अलग किस्म के नहीं हैं। जब पप्पू की शादी की बात कोई हँसी हँसी में भी छेड़ देता तो तुरंत कहते, “भई, लड़की लाना बड़ा जोखिम का काम है। बहुत देख परखकर शादी करनी है इसकी। एक ही तो बेटा है हमारा।” तो मैं भी तो एक ही बेटी थी। फिर मेरे लिए ऐसी दबी छुपी इच्छा क्यों? खैर जाने दीजिए। मुझे कोई शिकायत नहीं है। जिससे शादी हो गई है, उसी के साथ निभाऊँगी। बल्कि मेरा पति तो बहुतों से बेहतर है। मारता पीटता नहीं। कभी कभी कहीं घुमा भी लाता है। कभी उसके दोस्त भी आ जाते हैं सपरिवार। तो लोगों से मिलना जुलना भी हो जाता है। जरूरत पड़ने पर अकेले कभी हाट बाजार चली जाऊँ तो ऐसा रोकते भी नहीं लेकिन हाँ परेशान हो जाते हैं थोड़ा। आम पतियों की तरह थोड़ा प्रोटेक्टिव किस्म के हैं।
हाँ तो बात खिड़की पर हो रही थी। मैं जब ब्याहक इस घर में आई तो मुझे अच्छा लगा कि चलो सीमित आय में से ही जोड़ तोड़क इन्होंने एक दो कमरे वाला मकान खरीद लिया है। पिछवाड़े थोड़ी जगह भी है। शुरू में तो मैं घर को घर का रूप देने में और पिछवाड़े को बागीचे का रूप देने में ही व्यस्त रही। सड़े टमाटर फेंक कर रसोई की खिड़की के नीचे ही टमाटर के पौधे उगा लिए। कुछ बेली गेंदे के पौधे लगा लिए। अब अच्छा लगता है, जब रसोई की खिड़की से पिछवाड़े झाँकती हूँ। और इसमें कोई परेशानी भी नहीं। हमारा घर गली के आखिरी छोर पर है। यानी आगे कुछ नहीं। सड़क मुड़ जाती है। इसी लिए मुझे पिछवाड़े देखने की आदत पड़ी और जल्दी ही मैं ऊब भी गई। जबतक ये पौधे नहीं थे, और जब उगे और बढ़ रहे थे, तबतक अच्छा लगता था। मैं अक्सर घर के काम निबटाने के बाद रसोई की खिड़की से उनका जायज़ा लेती । कभी पिछवाड़े जाकर भी। वे छोटे छोटे पौधे मुझे अपने बच्चों की तरह लगते जिन्हें मैंने अभी अभी जनम दिया हो। अब वे बड़े हो गए हैं। फूल फल आते हैं। उनकी देखभाल रोज़मर्रा की आदत में शुमार हो गया है। इसीलिए मुझे बाहर के कमरे में एक खिड़की की सख्त जरूरत महसूस होने लगी। यूँ भी कोई आता जाता तो मैं कहीं से देखकर आश्वस्त नहीं हो पाती थी कि दरवाजे पर कौन है। कोई भला इन्सान या चोर उचक्का। कुछ भी हो सकता है, आपको क्या पता! फिर यह वजह भी अपने आप में बहुत ठोस थी, उस कमरे में एक खिड़की खुलवाने के लिए। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा। यही बात मैंने अपने पति से कही । उसने दरवाजे में ही एक छोटा सा छेद बनवाकर एक गोल शीशा लगवा दिया कि उससे मैं देख लिया करूँ। अब बताइए, खिड़की की जगह वह शीशा तो नहीं ले सकता। तब भी मैं बहुत समय तक चुप रही।
वे सारा दिन आफिस में रहते। मेरी रसोई उनके घर से निकलते ही निबट जाती। अब सारा दिन घर के अन्दर बैठकर ऊब नहीं महसूस होगी? थोड़ा गली मुहल्ले में लोगों से परिचय किया पर किसे फुरसत है आजकल। सबकी अपनी दुनिया, बच्चे, झमेले। हर रोज किसी के घर जाकर बैठ भी नहीं सकती। और मेरे पति को यह पसन्द भी नहीं है कि मैं सारा दिन मुहल्ले में गप्पें मारती घूमती रहूँ।
सोचा, थोड़ा पढ़ाई ही आगे बढ़ाऊँ। तो वहाँ भी सहयोग नहीं मिला। उनके अनुसार मैं मन्द बुद्धि हूँ। जल्दी सीखती नहीं। उनमें धीरज नहीं है मुझपर समय बर्बाद करने का। वैसे दोस्तों के बीच गर्व से बताते हैं “वीमेन्स कॉलेज से हिन्दी में बी.ए. किया है । पढ़ने में अच्छी थीं। वो तो मैं ब्याह लाया वरना आप कहीं स्कूल टीचर होतीं। है ना अपर्णा?”
मैं चुप रहती हूँ। जानती हूँ, किसी जवाब की अपेक्षा से यह सवाल नहीं किया गया। यह तो यह जताने की कोशिश है कि मैंने तुम्हें प्राइमरी स्कूल टीचर की बेकार सी जिन्दगी से बचा लिया है। क्या कहूँ? मुझे तो कभी कभी लगता है कि वह अकेली ज़िन्दगी बेहतर है । अलका को देखती हूँ, अभी तक शादी नहीं हुई। उसने बी.ए, बी एड किया। पढ़ाती है स्कूल में। जानती हूँ, उसे ही लेकर कटाक्ष किये जाते हैं। लेकिन क्या पता, कल को उसकी शादी भी हो जाए और वह पढ़ाती भी रहे। लेकिन सबको नौकरी भी कहाँ मिलती है। इसी लिए लगा कि शादी ही ठीक है।
सच बताऊँ साल बीतते बीतते ही बड़ी घुटन सी महसूस होने लगी थी इस घर में। और इस घर में एक खिड़की तक नहीं थी, जो बाहर को खुलती हो।
एक दिन शाम को मूड अच्छा देखकर मने पति से कहा, “आपको नहीं लगता कि इस कमरे में सड़क को खुलती एक खिड़की होनी चाहिए?
तब हम उसी कमरे में बैठे शाम की चाय पी रहे थे।
वे उखड़ गये, “क्यों? ठीक तो है। तुम्हें हर वक्त एक नया प्रोजेक्ट चाहिए। कभी घर में चूना करवा दो। कभी खिड़की खुलवा दो।”
मैं सहमकर चुप हो गई।
मैं इस घर को घर जैसा देखना चाहती थी। मैंने पिछवाड़े पर ध्यान केन्द्रित किया। मन में सोचा, खैरियत है, ससुरालवाले नहीं सुन रहे। पता नहीं क्या तूफान खड़ा होता! शायद सासू माँ मुझे अपने साथ गाँव लिवा ले गईं होतीं। उससे तो इस बिना खिड़की वाले घर में इनके साथ रहना ही बेहतर !
फिर कुछ महीनों बाद सोचा, एक बार फिर से बोलकर देखूँ। मैं उन्हें समझाऊँगी कि खिड़की ऐसे ही थोड़े न रहेगी। उसपर परदा भी होगा। परदा मैं अपनी पुरानी जॉरजेट की साड़ी का लगा सकती हूँ । वह इतना पुराना भी नहीं लगेगा। सुन्दर लगेगा। इस कमरे की सज्जा में बढ़ोत्तरी हो जायेगी। हमारा यह ड्राइंग रूम और अच्छा दिखने लगेगा। उनके दोस्त तारीफ करेंगे। जलेंगे।
मैंने दूसरी कोशिश की।
इस बार उन्होंने मुझे शान्ति से सुना। लेकिन जवाब और भी कड़वा, “तुम अपने दिमाग से यह बात निकाल दो। मैं इस कमरे में कोई खिड़की विड़की नहीं खुलवाने वाला । अब मज़दूर बुलाओ, दीवार तुड़वाओ। कमज़ोर पड़ जाती है दीवार इस तरह।”
मैं क्या दीवार को कमजोर करना चाहती थी?
मैं खुद ही क्या इस घर की एक दीवार नहीं थी, जिससे घर घर बना हुआ था!
या कि दीवारों के अन्दर रहने को तैयार नहीं थी?
न होती तो शादी क्यों करती?
मैंने तो सब सेाच समझकर शादी की थी।
बस बाहर की दुनिया को देखने की इजाजत चाहती थी। थोड़ा सा जुड़ना चाहती थी दीवार के उस पार हो रही हलचल से।
उन्हें इतना भी स्वीकार नहीं था।
शायद डर लगता हो कि फिर से रोज़ रोज़ बाहर की दुनिया से सामना होने लगा तो कहीं बाहर की दुनिया का हिस्सा न बनना चाहूँ।
आजकल तो लोग नैाकरी भी कराते हैं बीवी से। वह दोनों स्तरों पर पिसती है।
और कई बार इसके बावजूद घर में उसकी कोई खास हैसियत नहीं होती।
इन्हें क्यों मेरा खिड़की से बाहर देख पाना तक पसन्द नहीं !
मैं तो इतनी सुन्दर भी नहीं!
फिर कई महीनों तक बात टल गई। हमारे बीच ऐसा ही होता है। हम जिस मुद्दे पर सहमत नहीं होते, उसे बहुत दिनों तक टाल देते ह। वैसे असहमति अधिकतर उन्हीं की होती है, जब मुद्दा मेरी ओर से उठाया गया हो। उनकी बातें तो रो धोकर अंततः मैं मान ही लेती हूँ। और कई बार न मानने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता। वे तो वही करते हैं जो उन्हें पसन्द हो।
लेकिन मुझे पता है आमतैार पर ऐसा ही होता है।
पति की मर्जी चलती है।
कभी कभी औरत की भी।
मैंने सोचा वह ‘कभी’ कभी तो आयेगा।
मैंने एक सपना सा पाल लिया था खिड़की का। वह बाहर खुलेगी। मैं खाली वक्त में उस खिड़की से बाहर देख लिया करूँगी। न भी देखूँ तो भी उसके होने का अहसास एक खुशी भरता था मन में। थेाड़ी सी रोशनी और! थोड़ी सी धूप और! इसी तरह थोड़ा थोड़ा करके ही तो बनती है जिन्दगी। बसती है दुनिया!
मैं अपने मन में अटल थी।
थोड़े थोड़े समय पर प्यार से, मनुहार से उन्हें कोंचती। समझाना चाहती थी कि वे मुझपर विश्वास कर सकते हैं। मैं खिड़की इसलिए नहीं चाहती कि मुझे उनसे प्यार नहीं है। या कि उनपर भरोसा नहीं है।
उनकी छोटी छोटी जरूरतों का यूँ भी मैं खयाल रखती थी।
एक दिन खुद ही बेाले, “खूब समझता हूँ, यह सारी चापलूसी इसलिए हो रही है कि मैं तुम्हारे लिए बाहर के कमरे में एक खिड़की खुलवा दूँ। है न ?”
मैं हँस पड़ी। उन्होंने भी हँसकर ही कहा था।
तुरंत सख्त हो गया उनका चेहरा। “तुम सोचती हो, मैं तुम्हारी चालकियाँ समझ नहीं पाता? ये झाँसे किसी और को देना। विनय को आज तक कोई झाँसा नहीं दे पाया।”
उस दिन उनके ऑफिस जाने के बाद मैं दिन भर रोती रही।
फिर कभी मैंने खिड़की की बात नहीं की।
सारा दिन टी वी देखती। समय तो काटना होता है न! कभी कभी उदासी के दौरे भी पड़ते। तो रो लेती। इन्हें न समझ में आना था, न आया। कहते, “तुम्हें क्या है, सारा दिन टी वी देखती हो। हम हैं कि गधे की तरह खटते हैं। बीवियाँ तो ऐश करने के लिए होती हैं।”
मैं चुप सुन लेती।
टी वी की मायावी दुनिया से बाहर आना चाहती थी। जो खबरें अखबार छापते हैं या टी वी पर सुनती थी उनकी खबर लेने का मन होता था। क्या स्त्रियों को ऐसा चाहने का हक नहीं होता?
फिर ऊबकर, बहुत बेचैन होकर मैंने चाहा कि काश! हमारा एक बच्चा होता। और ऐसा हुआ। कुछ बातें ईश्वर तक तुरंत पहुँच जाती हैं। लेकिन मैं ऐसा भी नहीं कह सकती क्योंकि तबतक हमारी शादी को तीन साल हो चुके थे।
बच्चा आया तो मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं एकबारगी व्यस्त हो उठी। नए नए सपने अंकुराने लगे मन में। इसके बहाने अब घर से निकलूँगी। इसकी ऊँगली पकड़ घूमूँगी। पाँव पाँव चलेगा यह और मैं भी इसके नन्हें नन्हें कदमों से दुनिया नापूँगी। मैं नहीं जानती आप या और लोग इस बारे में क्या सोचते हैं, लेकिन मुझे लगा एक नई दुनिया खुल रही है मेरे सामने। मैं खुश थी । मैं व्यस्त थी। बहुत दिन ऐसे ही बीत गए। फिर वह जोश भी ठंडा पड़ने लगा।
“बेटा है मेरा।” वे बार बार कहते।
शौक से गोद में लेकर कभी घर से निकल जाते। घुमाते। मैं घर में.... खोई खिड़की को तलाशती हुई।
इस बीच नाते रिश्तेदार आए, दोस्त परिचित आए। यह कमरा वैसा ही रहा। न मैंने कुछ कहा, न उन्होंने। हाँ, मैंने लक्ष्य किया कि जब से बच्चा आया है, उन्हें एक बेचैनी सी महसूस होने लगी है। वे कई बार उसे गोद में लिए बाहर के कमरे तक जाते हैं और फिर लैाट आते हैं। शायद अपने बच्चे को घर को अन्दर से ही बाहर की दुनिया की झलक दिखाना चाहते हों। जिसके लिए मैं तरसती रही थी। लेकिन, मैंने तो इस बारे में बोलना बन्द कर दिया था। तब भी अचानक एक दिन उन्होंने खुद ही निर्णय लिया और दशहरे की जो थोड़ी सी छुट्टियाँ होती हैं, उनमें मजदूर बुलवाकर, दीवार तुड़वाकर, यह खिड़की खुलवा दी कमरे में।
इस खिड़की पर परदा मैंने लगाया। खुद सिला मशीन पर। परदे का कपड़ा वे ऑफिस से लौटते हुए लेते आए थे।
आज पाँच बरस हो गये। तब से हम इस शहर से कहीं बाहर भी नहीं गये हैं। इसी घर में हैं। आज यह खिड़की भी खुल गई है, इसी घर में। कहने को कहते हैं कि लो खुलवा दी खिड़की तुम्हारे लिए। मैं जानती हूँ, इस बात में कितनी सच्चाई है। अगर एक बिटिया होती तो शायद यह खिड़की कभी न खुलती। बल्कि खुली हुई खिड़कियाँ भी बन्द हो जातीं। जानती हूँ, यह खिड़की मेरे लिए तो बिल्कुल ही नही है। कभी भी नहीं थी। अब अगर मैं इसके बावजूद अपने लिए थोड़ी सी जगह बना लूँ तो यह और बात है। लेकिन फिलहाल तो पाँच सालों से घर के अन्दर रहते रहते मेरे अन्दर की वो लड़की ही मर गई है, जिसे एक खिड़की की सख्त जरूरत थी। जो बाहर की हलचल से जुड़ना चाहती थी। महसूसना चाहती थी, इस खिड़की से आती हुई हवा और धूप को। कहाँ गई वो लड़की ? सोचती हूँ मैं। मैं इस खिड़की से बाहर झाँकती हूँ, मेरे अन्दर कोई हलचल नहीं होती अब। कोई खुशी नहीं जागती। मैं इस बच्चे को खिलखिलाता देखती हूँ और मुस्करा देती हूँ बस!
शायद उन्हें इसी दिन का इन्तजार था।
Tuesday, October 19, 2010
Monday, October 11, 2010
IIBS: "SURFACE" -2010

TALENT SHOW
Set for the Corporate world
The students of the International Institute of Business Studies in the City were buzzing with energy at a unique cultural programme called ‘Surface’ held by the college recently. The students presented their talents not only through songs and dances but also through a fashion show which portrayed the glamour of the corporate world, its etiquette and culture. The idea behind ‘Surface’ was to search for the natural capabilities of students which can make a huge difference in the out side world. “Through this programme, we want to develop the confidence of students to face the corporate world,” said Samir Pradhan, a professor at the Institute. The event started with a solo song section which had students enthralling the audience with their vocal skills. Beginning with the latest ‘Peelu’ from ‘Once upon a time in Mumbai’ to the retro ‘Om Shanti Om’, the students got a taste of everything. Shuvam, a student, made the event even more special when he sang a self-composed song dedicated to his friends and classmates. The highlight of the evening was when the students were asked to choose their favourite professors. The students nominated two professors who were made to walk the ramp. This particular stunt drove the students wild and they screamed for more. The solo singing event was followed by a dance competition which had the students shaking a leg. The solo performance to the beats of ‘Aaja Nachle ’by a student, Jaya, received a lot of catcalls and was thoroughly enjoyed by everyone. But it was not all about film music. Sudarshana, another student, presented a folk dance performance.
Other programmes that created a lot of excitement during the day were group dances and songs. The most interesting event, however, was the skit which revealed the change in culture and spoke about the reforms needed today. The students enacted a short story of Munshi Premchand, which showed some misled youth who have forgotten the basic values of respecting their parents and have become slaves of alcohol, smoking etc. This was followed by a much-awaited fashion show which had the students presenting various stages of a manager’s life through clothes. The show began with students in casual clothes looking out for jobs. Then ca me the sleek formal wear round. Here, the new employees were seen meeting their clients. The other rounds had the students walking the ramp in ethnic wear and party gear, all ready to party after a hard day’s work. ‘Surface ’turned out to be an enjoyable event and had both the teachers as well as students asking for more.
STYLE TALK The fashion show.
Saturday, October 9, 2010
पंचायतो में भर्ती होंगें ऍमबीए और इंजिनियर

ग्रामीण विकास मंत्री सी पि जोशी ने हिन्दुस्तान को बताया कि... पंचायतो को मजबूत बनाने के मकसद से यह स्टाफ मुहैया कराया जाएगा | पंचायत विकास अधिकारी का मुख्य काम विकास कार्यों कि योजना बनाना और प्रशासनिक काम में सरपंच की मदद करना होगा |
Friday, October 8, 2010
When MBA summer internships make a difference
After completing the first year of the program students are required to undertake summer training project in industry for 8 weeks. This training helps students to have a first hand experience of working in real-life settings of industry.
The way the stipend program works is that a student identifies and competes for the chance to secure an internship based on their interests.
10 tips for a successful job interview
- Speak clearly and enthusiastically about your experiences and skills. Be professional, but don't be afraid to let your personality shine through. Be yourself. Don't be afraid of short pauses. You may need a few seconds to formulate an answer.
- Be positive. Employers do not want to hear a litany of excuses or bad feelings about a negative experience. If you are asked about a low grade, a sudden job change, or a weakness in your background, don't be defensive. Focus instead on the facts (briefly) and what you learned from the experience.
- Be prepared to market your skills and experiences as they relate to the job described. Work at positioning yourself in the mind of the employer as a person with a particular set of skills and attributes. Employers have problems that need to be solved by employees with particular skills; work to describe your qualifications appropriately.
- Research information about the company before the interview. Some important information to look for includes what activities are carried out by the employer, how financially stable the employer is, and what types of jobs exist with the employer. Researching an employer during the job search can help determine more about that organization and your potential place in it. Know how you can help the company and prepare questions to ask the interviewer about the company.
- Arrive early for the interview. Plan to arrive for your interview 10-15 minutes before the appointed time. Arriving too early confuses the employer and creates an awkward situation. By the same token, arriving late creates a bad first impression. Ask for directions when making arrangements for the interview.
- Carry a portfolio, notepad or at the very least, a manila file folder labeled with the employer's name.
- Bring extra resumes and a list of questions you need answered. You may refer to your list of questions to be sure you've gathered the information you need to make a decision. Do not be preoccupied with taking notes during the interview.
- In many career fields, the lunch or dinner included during the interview day encompasses not only employer hospitality, but also a significant part of the interview process. Brush up on your etiquette and carry your share of the conversation during the meal. Often social skills are part of the hiring decision.
- After the interview, take time to write down the names and titles (check spelling) of all your interviewers, your impressions, remaining questions and information learned. If you are interviewing regularly, this process will help you keep employers and circumstances clearly defined.
- Follow up the interview with a thank-you letter. Employers regard this gesture as evidence of your attention to detail, as well as an indication of your interest in the position.